कुछ महत्वपूर्ण बिंदु:
पर्यावरण वह आवरण है जो वनस्पति तथा जीव जंतुओं को ऊपर से ढके हुए हैं।
वर्तमान वैश्विक राजनीति में पर्यावरण का हा्स एक गंभीर समस्या एवं चिंतन का विषय बनकर उभरा है, जिसका मुख्य कारण कृषि भूमि की कमी, चारागाह एवं मत्स्य भंडार का अपक्षय, जलीय प्रदूषण एवं जल की कमी, वनों की कटाई जिसके कारण समाप्त होती जीव विविधता, ओजोन परत की हानि तथा समुद्र तटीय इलाकों में बढ़ता प्रदूषण है।
प्राकृतिक संसाधन मुख्य रूप से वह संसाधन है जो मनुष्य को प्रकृति से उपयोग करने के लिए प्राप्त होते हैं और मनुष्य के लिए वह सभी प्राकृतिक संसाधन एक साधन होते हैं।
पर्यावरण की सुरक्षा के वैश्विक प्रयास:-
1972 में 'क्लब ऑव रोम ' ने लिमिट्स टू
ग्रोथ नामक पुस्तक को प्रकाशित किया:-
इसमें बढ़ती जनसंख्या के आलोक में प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के आदेशों को बताया गया है।
1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन किया गया:-
मानव पर्यावरण सम्मेलन कराया गया जिसमें एक ही धरती की अनुगूंज सुनाई दी
1970 में UNEP द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यक्रम:-
पर्यावरण की समस्याओं पर ज्यादा कारगर और ज्यादा सुलझी हुई पहलकदमियों की शुरुआत हुई।
1987 में मार्टियल समझौता हुआ:-
यह समझौता ओजोन क्षय को रोकने के लिए किया गया है।
1987 में बर्टलैंड रिपोर्ट ' अवर कॉमन फ्यूचर:-
इसमें यह चेताया गया कि आर्थिक विकास के चालू और तौर-तरीके आगे चलकर टिकाऊ साबित नहीं होंगे।
1992 में ब्राजील (रियो डी जेनेरियो) प्रथम पृथ्वी सम्मेलन हुआ:-
170 देशों, हजारों स्वयंसेवी संगठनों तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया।
पर्यावरण सुरक्षा को लेकर विकसित और विकासशील देशों के बीच अंतर था। विकसित देशों की चिंता ओजोन परत के क्षय एवं वैश्विक ताप को लेकर थी। विकासशील देश अपने तथा पर्यावरण सुरक्षा के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए चिंतित थे।
एजेंडा- 21:- इसमें विकास के तौर-तरीके सुझाए गए। यह कहा गया कि आर्थिक वृद्धि का तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान ना पहुंचे इसे ही टिकाऊ विकास भी कहा गया है।
1997 में क्योटो प्रोटोकॉल:-
औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए गए।
2002 में जोहानिसबर्ग में दूसरा पृथ्वी सम्मेलन:-
मूल रूप से दीर्घकालिक विकास पर केंद्रित था।
तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसका बहिष्कार किया था।
चीन व रूस ने 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को सहमति दे दी थी।
ब्राजील में एक प्रस्ताव के माध्यम से 2010 तक विश्व भर में कुल ऊर्जा के इस्तेमाल का 10% गैर परंपरागत स्रोत से होने का लक्ष्य रखा था।
2007 में बाली (इंडोनेशिया) तीसरा पृथ्वी सम्मेलन हुआ:-
पृथ्वी सम्मेलन को Cop-3 के नाम से भी जाना जाता है।
क्योटो प्रोटोकोल पर बातचीत हुई। पुर्व में पर्यावरण को लेकर किए गए प्रयासों का मूल्यांकन किया गया।
2009 तक अगले सम्मेलन से पूर्व कुछ ठोस रोड मैप व लक्ष्य निर्धारित किया गया।
2009 में कोपेनहेगन सम्मेलन:-
2012 में समाप्त हो रही है क्योटो संधि को आगे लागू करने के लिए मानदंडों को निश्चित करना।
धरती का ताप 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं करने पर सहमति बनी। कार्बन उत्सर्जन में कटौती की कहीं गई।
2010 में कानकुन सम्मेलन COP-16:-
ग्रीन हाउस उत्सर्जन में कटौती की बात भी कही गई।
2012 में रियो+20 रियो- जेनेरियो:
पृथ्वी सम्मेलन के 20 वर्ष बाद रियो में यह सम्मेलन हो रहा था। इसलिए रियो + 20 कहा गया।
सतत विकास के लिए नवीकृत राजनीतिक प्रतिबद्धता सुनिश्चित की गई।
नई उभरती चुनौतियों का समाधान करना उद्देश्य था।
रियो सम्मेलन का मूल्यांकन किया गया।
2013 में वारसा COP-19:-
यह कहा गया कि सभी सदस्य देश संभवतः 2015 के पहले तिमाही तक कार्बन उत्सर्जन में कटौती करेंगे।
2015 में पेरिस समझौता:-
यहां 2020 से लागू होगा।
वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर सीमित करना।
भारत में 2 अक्टूबर 2016 को हस्ताक्षर किए और 2020 तक उत्सर्जन तीव्रता को 2015 के मुकाबले 35 से 35% तक कम करने का लक्ष्य रखा है।
अमेरिका ने स्वयं को इस समझौते से अलग रखा है।
2016 में COP-22 माराकेश :-
विकासशील देशों द्वारा निर्धारित अभीष्ट राष्ट्रीय निर्धारित अंशदान को प्राप्त करने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना इसका विषय था।
2017 में COP-23 बान (जर्मनी):-
चरणबद्ध तरीके से कोयले के उपयोग को सीमित करने पर सहमति करने पर सहमति बनी।
समाधान की दिशा में लिंग संबंधी कारकों की पहचान का निर्माण।
स्थानीय लोगों की राय को अहमियत।
कृषि के माध्यम से होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन के मुद्दे पर विचार विमर्श पर निर्णय है।
2018 में COP-24 पोलैंड:-
यह इस वर्ष 2018 में आयोजित की जाएगी।
साझी संपदा :- साझी संपदा उन संसाधनों को कहते हैं जिन पर किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समुदाय का अधिकार होता है। जैसे संयुक्त परिवार का चुल्हा, चारागाह, मैदान, कुआं या नदी। इसमें पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष में शामिल है इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण समझौते जैसे अंटार्कटिका संधि(1959), मॉन्ट्रियल न्यायाचार(1987), अंटार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991) हो चुके हैं।
साझी संपदा, भिन्न-भिन्न जिम्मेदारियां:-
वैश्विक साधन संपदा की सुरक्षा को लेकर भी विकसित एवं विकासशील देशों का मत भिन्न है।
विकसित देश इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी सभी देशों में बराबर बांटने के पक्ष में है।
परंतु विकासशील देश दो आधारों पर विकसित देशों की इस नीति का विरोध करते हैं, पहला यह कि साझी संपदा को प्रदूषित करने में विकसित देशों की भूमिका अधिक है।
दूसरा यह कि विकासशील देश अभी विकास की प्रक्रिया में है।
अतः साझी संपदा की सुरक्षा के संदर्भ में विकसित देशों की जिम्मेदारी भी अधिक होनी चाहिए तथा विकासशील देशों की जिम्मेदारी कम की जानी चाहिए।
भारत ने भी पर्यावरण सुरक्षा के विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से अपना योगदान दिया है:-
2002 क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर एवं उसका अनुमोदन।
2005 में जी-8 देशों की बैठक में विकसित देशों द्वारा की जा रही ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी पर जोर।
नेशनल ऑटो फ्यूल पॉलिसी के अंतर्गत वाहनों में स्वच्छ ईंधन का प्रयोग।
2001 में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम पारित किया।
2003 में बिजली अधिनियम में नवीकरणीय ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया गया।
भारत में बायोडीजल से संबंधित एक राष्ट्रीय मिशन का कार्य चल रहा है।
भारत SAARC के मंच पर सभी राष्ट्र द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा पर एक राय बनाना चाहता है।
भारत में पर्यावरण की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए 2010 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण(NGT) की स्थापना की गई।
भारत विश्व का पहला देश है जहां अक्षय ऊर्जा के विकास के लिए अलग मंत्रालय है।
कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में प्रति व्यक्ति कम योगदान (अमेरिका 16 टन, जापान 8 टन, चीन 6टन, भारत 01.38 टन)
भारत ने पैरिस समझौते पर 2 अक्टूबर 2016 का हस्ताक्षर किए।
2030 तक भारत में उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के मुकाबले 33 से 35% कम करने का लक्ष्य रखा है।
COP-23 में भारत वृक्षारोपण व वन क्षेत्र की बेटी के माध्यम से 2020 तक 2.5 से 3 मिलियन टन CO 2 के बराबर सिंक बनाने का वादा किया है।
भारत कर्क व मकर रेखा के बीच स्थित स्थिति सभी देशों के एक वैश्विक सौर गठबंधन के मुख्य के रूप में कार्य करेगा।
पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर विभिन्न देशों की सरकारों के अतिरिक्त विभिन्न भागों में सक्रिय पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं ने अंतरराष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर कई आंदोलन किए हैं जैसे:-
दक्षिणी देशों मेक्सिको, चीले, ब्राजील, मलेशिया, इंडोनेशिया, अफ्रीका और भारत के वन आंदोलन।
ऑस्ट्रेलिया में खनिज उद्योगों के विरोध में आंदोलन।
थाईलैंड, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, चीन तथा भारत में बड़े बांधों के विरोध में आंदोलन जिनमें भारत का नर्मदा बचाओ आंदोलन प्रसिद्ध है।
संसाधनों की भू- राजनीति:-
यूरोपीय देशों के विस्तार का मुख्य कारण
अधीन देशों का आर्थिक शोषण रहा है। जिस देश के पास जितने संसाधन होंगे उसकी अर्थव्यवस्था उतनी ही मजबूत होगी।
इमारती लकड़ी:- पश्चिम के देशों ने जलपोतो के निर्माण के लिए दूसरे देशों के वनों पर कब्जा किया ताकि उनकी नौ सेना मजबूत हो और विदेश व्यापार बढे।
तेल भंडार:- विश्व युद्ध के उन देशों का महत्व बढ़ा है जिनके पास यूरेनियम और तेल जैसे संसाधन थे। विकसित देशों ने तेल की निर्बाध आपूर्ति के लिए समुद्री मार्गों पर सेना तैनात की।
जल:- पानी की नियंत्रण एवं बंटवारे को लेकर लड़ाइयां हुई। जॉर्डन नदी किसानों के लिए चार देश दावेदार हैं इजराइल, जॉर्डन, सीरिया एवं लेबनान।
मूलवासी:- संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1982 में ऐसे लोगों को मूलवासी बताया जो मौजूदा देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे थे तथा बाद में दूसरी संस्कृति और जातियों ने उन्हें अपने अधीन बना लिया, भारत में मूलवासी के लिए जनजातीय आदिवासी शब्द का प्रयोग किया जाता है 1975 में मूलवासी का संगठन World Council Of Indigenous People बना।
मूलवासियों की मुख्य मांग यह है कि इन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए, दूसरी आजादी के बाद से चली आ रही परियोजनाओं के कारण इनके विस्थापन एवं विकास की समस्या पर भी ध्यान दिया जाए।
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